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कङ्क॑तो॒ न कङ्क॒तोऽथो॑ सती॒नक॑ङ्कतः। द्वाविति॒ प्लुषी॒ इति॒ न्य१॒॑दृष्टा॑ अलिप्सत ॥

English Transliteration

kaṅkato na kaṅkato tho satīnakaṅkataḥ | dvāv iti pluṣī iti ny adṛṣṭā alipsata ||

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Pad Path

कङ्क॑तः। न। कङ्क॑तः। अथो॒ इति॑। स॒ती॒नऽक॑ङ्कतः। द्वौ। इति॑। प्लुषी॒ इति॑। इति॑। नि। अ॒दृष्टाः॑। अ॒लि॒प्स॒त॒ ॥ १.१९१.१

Rigveda » Mandal:1» Sukta:191» Mantra:1 | Ashtak:2» Adhyay:5» Varga:14» Mantra:1 | Mandal:1» Anuvak:24» Mantra:1


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब एकसौ एक्यानवे सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र से विषौषधि और विषवैद्यों के विषय को कहते हैं ।

Word-Meaning: - जो मनुष्य (कङ्कतः) विषवाले प्राणी के (न) समान (कङ्कतः) चञ्चल (अथो) और जो (सतीनकङ्कतः) जल के समान चञ्चल हैं वे (द्वाविति) दोनों इस प्रकार के जैसे (प्लुषी, इति) जी जलानेवाले दुःखदायी दूसरे के सङ्ग लगें वैसे (अदृष्टाः) जो नहीं दीखते विषधारी जीव वे (नि, अलिप्सत) निरन्तर चिपटते हैं ॥ १ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे कोई चञ्चल जन अध्यापक और उपदेशक को पाकर चञ्चलता देता है, वैसे न देखे हुए छोटे-छोटे विषधारी मत्कुण, डांश आदि क्षुद्र जीव बार-बार निवारण करने पर भी ऊपर गिरते हैं ॥ १ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथ विषौषधिविषवैद्यानां च विषयमाह ।

Anvay:

यो मनुष्यः कङ्कतो न कङ्कतोऽथो सतीनकङ्कतो द्वाविति यथा प्लुषी इत्यन्येन सह सज्जेरन् तथाऽदृष्टा न्यलिप्सत ॥ १ ॥

Word-Meaning: - (कङ्कतः) विषवान् (न) इव (कङ्कतः) चञ्चलः (अथो) आनन्तर्ये (सतीनकङ्कतः) सतीनमिव चञ्चलः। सतीनमित्युदकनामसु पठितम् । निघं० १। १२। (द्वौ) (इति) प्रकारे (प्लुषी इति) दाहकौ दुःखप्रदौ (नि) (अदृष्टाः) येन दृश्यन्ते ते विषधारिणो जीवाः (अलिप्सत) लिम्पन्ति ॥ १ ॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः। यथा कश्च्चिच्चञ्चलो जनोऽध्यापकोपदेष्टारौ प्राप्य कङ्कते तथाऽदृष्टा विषधारिणः क्षुद्रा जीवाः पुनः पुनर्निवारिता अप्युपरि पतन्ति ॥ १ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

या सूक्तात विष नष्ट करणारी औषधी, विष नष्ट करणारे जीव व विष नाहीसे करणाऱ्या वैद्याचे गुण वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

Word-Meaning: - N/A
Connotation: - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे चंचल लोक अध्यापक व उपदेशक यांचा संग प्राप्त करूनही चंचल असतात, तसे अदृष्ट छोटे छोटे विषाणू, ढेकूण, डास इत्यादी क्षुद्र जीवांचे वारंवार निवारण करूनही पुन्हा पुन्हा जवळ येतात. ॥ १ ॥